Tuesday, June 5, 2012

श्री कृष्ण - अर्जुन - द्वारिका प्रसंग

भगवन श्री कृष्ण ने द्वारका नगरी का निर्माण किया और द्वारका में ही जाकर रहने लगे.
द्वारका में एक ब्रह्मण रहता था उसके ७ पुत्र थे. एक दिन अचानक १ पुत्र की मृत्यु हो गई..ब्रह्मण को बड़ा शोक हुआ और वो कृष्ण के महल के सामने जाकर रोने चिल्लाने लगा और कृष्ण को भला बुरा कहने लगा. उसने कृष्ण को कहा की अब मेरे किसी पुत्र की मृत्यु नहीं होना चाहिए...लेकिन अगले दिन अचानक ब्रह्मण के दुसरे पुत्र की भी मृत्यु हो गई. ऐसे करते करते ६ दिनों में ब्रह्मण के ६ पुत्रो की मौत हो गई.

कृष्ण के सखा अर्जुन बहुत वर्षो के बाद श्री कृष्ण से मिलने द्वारका पधारे, अर्जुन ने उस ब्रह्मण को प्रलाप करते देखा, वो ब्राह्मण कृष्ण को गाली भी दे रहा था. अर्जुन ने उस ब्रह्मण से जाकर पुछा की क्या मामला है.
ब्रह्मण ने अर्जुन को कहा की कैसे क्या हुआ और ये भी कहा की इस द्वारका नगरी का राजा अक्षम है वो मेरे पुत्र की रक्षा नहीं कर सका अब मेरे एक ही पुत्र बचा हुआ उसकी भी कल मृत्यु ना हो जाये. पिछले ६ दिनों में मेरे ६ पुत्रो को मृत्यु हो चुकी है, कल सातवा दिन है और मेरे अंतिम पुत्र की कल मृत्यु ना हो जाये...इस नगर का राजा अपने महलो में सोया हुआ है वो मेरी कोई सहायता नहीं कर रहा है.

ऐसा सुन कर अर्जुन ने उस ब्रह्मण को कहा की मै तुम्हे वचन देता हूँ की तुम्हारे सातवें पुत्र की रक्षा मै करूँगा अगर मै तुम्हारे पुत्र की रक्षा नहीं कर पाया तो मै अग्नि मै कूद कर अपने प्राण दे दूंगा.
अर्जुन के मुख से ऐसे वचन सुन कर ब्रह्मण ने प्रलाप करना बंद कर दिया और आश्वस्त हो गया.
अर्जुन ने अपना धनुष उठाया और उस ब्रह्मण के घर पे चारो और अपने बाणों से एक दीवार से बना दी जिसमे से हवा भी अन्दर प्रवेश ना कर सके और अर्जुन खुद पहरे पे बैठ गया.
अगले दिन सुबह ही ब्राहमण के अंतिम सातवे पुत्र की भी मृत्यु हो गई..ये देख कर अर्जुन विचलित हो गया और अग्नि मै प्रवेश करने की तयारी करने लगा. 

श्री कृष्ण ने ये देखा तो अर्जुन से बोले की ऐसा मत करो ...अर्जुन ने श्री कृष्ण को कहा की अगर आप मुझे जीवित देखना चाहते है तो इस ब्रह्मण के पुत्र को जीवित करवाओ.
श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा की ऐसी बात है तो मेरे साथ चलो.

श्री कृष्ण ने अर्जुन को साथ लिया और चलने लगे...रस्ते मै करोडो ब्रह्माण्ड को पार करते गए चलते चलते वो सागर की गहराइयों मै पहुंचे वहां शेष शैया पे सर्व समर्थ भगवान हरी विराट रूप भगवन श्री विष्णु विराजमान थे.
श्री कृष्ण और अर्जुन ने उन विराट स्वरुप श्री विष्णु को प्रणाम किया और अपने आने का मंतव्य बताया की उन् ब्रह्मण पुत्रो को जीवित करे. श्री भगवन विष्णु ने श्री कृष्ण को कहा की तुम्हे यहाँ तक बुलाने के लिए ही मैंने उन् ब्रह्मण पुत्रो को अपने पास बुला लिया था.

भगवान ने श्री कृष्ण को कहा की कृष्ण मैंने तुम्हे कृष्ण रूप मै जिस कार्य को करने के लिए भेजा था वो पूर्ण हो गया है अब वापस आ जाओ.
 
भगवान विष्णु ने ब्रह्मण के सातो पुत्रो को श्री कृष्ण को सौंप दिया और कहा की अपने समस्त कार्य संपन्न करके वापस विष्णु लोक को लौट आओ.

सारांश : करोडो ब्रह्माण्ड है ..करोडो कृष्ण है लेकिन सर्व समर्थ सारे विश्व को चलाने वाला सिर्फ एक सर्व समर्थ भगवान है ..श्री हरी.


Monday, February 21, 2011

दान का तुरंत फल.....एक प्रेरक कहानी...सत्य कहानी

एक बार एक राज कवि कहीं जा रहे थे, जेठ का तपता हुआ महिना था, रास्ते में उनको एक राहगीर मिला वो बहुत ही गरीब दिखाई दे रहा वो नंगे पैर चल रहा था. उसको देख कर राज कवि महोदय को बड़ी दया आई और उन्होंने अपनी जूतियाँ उतार कर उस व्यक्ति को दे दी.
कवि महोदय को नंगे पैर चलने की आदत नहीं थी उनके पैर जलने लगे परन्तु उनक मन में ये संतोष था की उन्होंने किसी की सेवा की किसी को कष्ठ से मुक्ति दिलवाई.
थोडा आगे जाने पे उनको एक हाथी मिला उसके महावत ने जैसे ही राज कवि को देखा उसने उनको प्रणाम किया और उनको हाथी पे बैठा लिया. थोडा आगे जाने पे उनको राजा मिला उसने देखा कि राज कवि हाथी पे नंगे पैर बैठे हुए है उन्होंने उनसे पूछा कि ऐसा क्यों राज कवि ने सारी बात राजा को कह सुनाई....राजा ने सोचा कि जूतियाँ दान करने से राज कवि को हाथी कि सवारी करने को मिली अगर में ये हाथी ही दान कर दूं तो पता नहीं मुझे उसका क्या क्या फल प्राप्त होगा...ऐसा विचार कर राजा ने कवि से कहा कि आज से ये हाथी जिस पे आप बैठे हुए हो ये आपका हुआ.

ये है दान का तुरंत फल....दान का फल हर किसी को प्राप्त होता है चाहे वो तुरंत हो या देर से.
इसीलिए हमेशा अपने ही सुख कि नहीं सोच कर आदमी को दुसरो के लिए भी कुछ करना चाहिए...आप किसी के लिए कुछ करते है किसी को कुछ देते है तो उसका पता नहीं कितने गुना आपको उसके बदले में प्राप्त होता है.

जय श्री कृष्ण

Thursday, November 11, 2010

भगवन शंकर ने सागर मंथन में निकला हुआ विष (जहर) क्यूँ पिया?

भगवान् शंकर ने आखिर समुद्र मंथन में निकला हुआ जहर क्यूँ पिया ? क्या विश्व की भलाई के लिए ? कहीं कोई और कारण तो नहीं था ?

जब समुद्र मंथन हुआ तो उसमे से काफी कुछ निकला जो देवताओ और दानवो ने आपस में बाँट लिया। समुद्र मंथन से जब विष निकला तो उसको लेने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ, क्यूंकि सब जानते थे की ये जानलेवा है। ये जानते हुए भी की ये जानलेवा है भगवान् शंकर ने जहर पी लिया।

जहर पीने के पीछे कारण ये था की .....
शंकर भगवान् ने अपनी जटा में अपने सिर पर गंगा को बैठा रखा है इस बात से पार्वती जी नाराज रहती थी और घर में झगड़ा किया करती थी ..पार्वती जी बोलती थी की आपने भगवन अपने सर पे पराई स्त्री को बैठा रखा है और ये चन्द्रमा क्या मुझसे ज्यादा सुन्दर है जो इसको भी सिर पे बैठा रखा है...भगवान शंकर इस रोज रोज के झगडे से तंग आ गए थे

दूसरा भगवान शंकर के गले में सांप लटके रहते है और गणेश जी का वाहन है चूहा..भगवान् शंकर के गले में लटके हुए सांप गणेश जी के चूहे को खाने के लिए लपकते है और ये झगडे का कारण बन जाता है। भगवान गणेश जी भगवान शंकर जी से शिकायत करते है और झगडा करते है।

तीसरा भगवान कार्तिकेय का वाहन है मोर, ये मोर भगवान् शंकर के गले में लटके हए सांप के दुश्मन है वो मोर इन् सांपो को खाने को लपकता है ..फिर झगडा।

इन् रोज रोज के झगड़ो से भगवान शंकर तंग आ गए थे इसीलिए जैसे ही उनको मौका मिला उन्होंने जहर पी लिया। वो तो गंगा जी ने बचा लिया और भगवान शंकर जी को एक और नया नाम मिल गया "नीलकंठ"
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Monday, November 8, 2010

रावण के बारे में कुछ बातें

रावण बहुत ही प्रकांड विद्वान था ये सर्व विदित है। जब प्रभु राम ने रावण को तीर से घायल कर दिया और रावण की सांसे उखड़ने लगी तब रावण ने लक्षमण को अपने पास बुलाया और कुछ ज्ञान देना चाहा। प्रभु राम की आज्ञा पाकर लक्षमण रावण के पास गया और उस से शिक्षा देने को कहा।

रावण के एक शिक्षा लक्षमण को ये थी कि "किसी भी काम को करने का अगर विचार मन में आये तो उसको बाद पे मत टालना।
ऐसा रावण ने क्यूँ कहा? .....
रावण महाशक्तिशाली, पराक्रमी एवं शिव जी का भक्त था उस ने कई बार देवताओ को युद्ध में हराया था।
रावण कि ३ इछाये थी
१। समुद्र का पानी मीठा करने कि
२। स्वर्ण(सोने) में महक (खुसबू) पैदा करने की
३। स्वर्ग तक सीढियाँ बनाने कि

रावण समर्थ था और वो ये सब कार्य कर सकता था परन्तु वो आज कल पे टालता रहा और आखिरकार मृत्यु आ गयी और उसकी ये अभीलाषाएं पूर्ण नहीं हो सकी....इसिलए रावण ने लक्षमण को ये ज्ञान दिया था ।

मेरी जीवनी

सबसे पहले आप सभी को मेरा नमस्कार। मेरा नाम अशोक कुमार शर्मा है मैं लाखेरी उच्च माध्यमिक विद्यालय से प्राचार्य के पद से सेवानिवृत हुआ हूँ। इस ब्लॉग को बनाने के पीछे सिर्फ एक ही उद्देश्य है की मैं अपना ज्ञान आप लोगो के साथ बाँट सकूँ और आप लोगो की राय और विचार भी जान सकूँ.